कबूतर
कबूतर
कबूतर एक शांत स्वभाव वाला पक्षी है। कबूतर सभी स्थानों पर भिन्न-भिन्न
आकृति वाले होते हैं। कोलंबिडी कुल (गण कोलंबीफॉर्मीज़) की कई सौ
प्रजातियों के पक्षियों में से एक छोटे आकार वाले पक्षियों को फ़ाख्ता या
कपोत और बड़े को कबूतर कहते हैं। इसका एक अपवाद सफ़ेद घरेलू कबूतर है, जिसे
'शांति कपोत' कहते हैं। कबूतर ठंडे इलाक़ों और दूरदराज़ के द्वीपों को
छोड़कर लगभग पूरी दुनिया में पाए जाते हैं।
इतिहास
कबूतरों को पालतू बनाए जाने का सबसे पुराना उल्लेख मिस्र
के पांचवे राजवंश (लगभग 300 ई.पू) से मिलता है। 1150 ई. में बग़दाद के
सुल्तान ने कबूतरों की डाक व्यवस्था शुरू की थी और चंगेज़ ख़ां ने अपने
विजय अभियानों के विस्तार के साथ ऐसी ही प्रणाली का उपयोग किया था। 1848 की
क्रांति के दौरान यूरोप
में संदेश वाहक के रुप में कबूतरों का व्यापक इस्तेमाल हुआ था और 1849 में
बर्लिन व ब्रूसेल्स के बीच टेलीग्राफ़ सेवा भंग होने पर कबूतरों को ही
संदेश वाहक रुप में प्रयुक्त किया गया था। 20 वीं शताब्दी में भी युद्धों
के दौरान कबूतरों को आपात संदेश ले जाने के लिए इस्तेमाल किया गया। अमेरिका के आर्मी सिगनल कॉर्प्स के कबूतर की उड़ान का कीर्तिमान 3,700 किलोमीटर का है।
रूप और आकृति
कबूतर सौम्य, पंखदार, छोटी चोंच वाले पक्षी हैं। जिनकी चोंच और माथे के
बीच त्वचा की झिल्ली होती है। सभी कबूतर अपने सिर को आगे पीछे हिलाते हुए
इतराई सी चाल चलते हैं। अपने लंबे पंखों और मज़बूत उड़ान माँसपेशियों के कारण ये सशक्त व कुशल उड़ाके होते हैं। ये एकसहचर होते हैं। इनका जीवन थोड़े दिन के लिए होता है।
प्रजातियाँ
इसकी लगभग 250 प्रजातियाँ ज्ञात हैं; जिनमें से दो- तिहाई उष्णकटिबंधीय
दक्षिण - पूर्व एशिया, ऑस्ट्रेलिया और पश्चिमी प्रशांत महासागरीय द्वीपों
में पाई जाती हैं। लेकिन इस वंश के कई सदस्य अफ़्रीका व दक्षिण अमेरिका और
कुछ शीतोष्ण यूरेशिया और उत्तरी अमेरिका में पाए जाते हैं। कबूतरों की
विभिन्न जातियाँ निम्न उपपरिवारों से संबद्ध हैं कोलंबीनी, सामान्य या असली
कबूतर जिनकी लगभग 30 जातियों में तक़रीबन 175 प्रजातियाँ हैं। झुंडों में
रहने वाले बीज और फलभक्षी ये कबूतर दुनिया भर के शीतोष्ण व उष्णकटिबंधीय
क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इनमें से कुछ भूमि पर आहार ग्रहण करते हैं।
अन्य अंशत: या पूर्णत: पेड़ों पर भोजन प्राप्त करते हैं। ये साधारणत: हल्के
स्लेटी, भूरे और काले रंग के होते हैं और कभी-कभी इनके पंखों पर रंग
बिरंगे धब्बे पाए जाते हैं। महानगरों में पाई जाने वाली प्रजाति कोलंबा-
जिसमें पुरानी दुनिया के जंगली कबूतर और नई दुनिया के वलयदार पूंछ युक्त
कबूतर भी शामिल है।
कबूतर के समूह में स्ट्रेप्टोपेलिया प्रजाति भी शामिल है, जिसमें
पुरानी दुनिया के कूर्म कपोत और वलय कपोत शामिल हैं। शहरी क्षेत्रों में
सड़कों पर पाए जाने वाले कबूतरों की प्रजाति भी इसी जाति के तरह होती है।
इनमें पालतू नस्लों से संकरण के कारण कई नस्लें हैं। जो अंतत: पुरानी
दुनिया के रॉक कपोत से संबद्ध हैं। रॉक कपोत सामान्यत: धूसर रंग का होता
है। यूरेशिया की यह प्रजाति एशिया में 1,525 मीटर से अधिक ऊंचाई पर पाई
जाती है। इसे 3000 ई.पू से पालतू बनाकर चयनित प्रजनन कराया गया है। जिससे
कई रंगों और लगभग 200 नामों की नस्लें पैदा हो गई हैं। इनमें प्रदर्शन
कबूतर उड़ाके कबूतर व बड़े खाद्य कबूतर शामिल हैं। इन नस्लों में से पाउटर
कबूतरों में एक बड़ी फैल सकने वाली गलथैली होती है, संदेशवाहक कबूतरों की
चोंच लंबी होती है और शरीर भारी होता है; बार्ब छोटी चोंच वाली नस्ल है।
पंखदार पूंछ वाले कबूतर की पूंछ में 42 से अधिक पंख होते हैं; उलूक कबूतर
के गले के पंख बिखरे हुए होते हैं; फ़्रिलबैक के पंख उल्टी दिशा में होते
है; जैकोबिन के गले के पंख छतरी के सामान होते हैं। टंबलर कबूतर उड़ते समय
उल्टी दिशा में गोता लगाते हैं। 'नई दुनिया का यात्री कबूतर' अब विलुप्त हो
गया है।
चूज़े
घोंसला बनाने अंडे सेने और चूज़ों को भोजन कराने में नर-मादा, दोनों
सहयोग करते हैं। एक बार में आमतौर पर दो अंडे होते हैं और उन्हें ढाई
सप्ताह तक सेना पड़ता है। दो या तीन सप्ताह में चूज़े घोंसला छोड़ देते
हैं, वयस्क फिर से घोंसला बनाते हैं और साल भर में दो या तीन बार प्रजनन
करते हैं। इस परिवार के कई सदस्य तरल चूसते हैं, अन्य पक्षियों की तरह वे
घूंट भरते या निगलने की प्रक्रिया नहीं अपनाते सभी कबूतर अपने चूज़ों को
अपना दूध
पिलाते हैं। जो प्रोलेक्टिन हॉर्मोन की उत्तेजक प्रक्रिया से बना गाढ़ा
द्रव होता है। चूज़े अपने अभिभावकों के गले में चोंच डालकर यह दूध पीते
हैं। मादा बेतरतीब घोंसले में एक बार में दो चमकीले सफ़ेद अंडे देती है,
जहाँ अंडे मुश्किल से ही ठहर पाते हैं। मादा आमतौर पर रात में अंडे सेती है
और दिन में नर सेता है। अंडों से चूज़े निकलने में 14 से 19 दिन लगते हैं।
लेकिन इसके बाद भी 12 से 18 दिनों तक घोंसले में ही रखकर उनकी देखभाल की
जाती है।
भारत में कबूतर
भारत में 34 से अधिक किस्मों के कबूतर पाए जाते हैं। इसकी सामान्य प्रजातियाँ इस प्रकार हैं, नीला, रॉक कबूतर हरा शाही कबूतर जंगली और हरा कबूतर हैं। हिमालय का हिम कबूतर, तिब्बत
के पठार का पहाड़ी कबूतर और पर्वतीय क्षेत्र के शाही व जंगली कबूतर,
अंडमान का जंगली कबूतर, निकोबार का पाइड इंपीरियल कबूतर, पीतवर्णी कबूतर और
निकोबारी कबूतर अब इस धरती पर देखना दुर्लभ हैं।
भोजन
कबूतर का आहार अनाज, दालें, फल,
कलियाँ और पत्तियाँ घोंघे, कीट है। ये रेत, चिकनी मिट्टी, चूना, बजरी भी
खा लेते हैं और गोबर के ढेर, मल स्थानों तथा रासायनिक अवशेषों से नमक
प्राप्ति के लिए भोजन ग्रहण करते हैं। इनके द्वारा निगले गए छोटे-छोटे
कंकड़ पेट में भोजन को पीसने के काम आते हैं। ये पानी में अपनी चोंच डुबाकर
लगातार चूसकर पानी पीते हैं। भूमिचर कबूतर खाते समय सक्रियता से इधर-उधर
दौड़ते हैं।
कबूतर की आवाज़
कबूतर की आवाज़ निस्संदेह गुटर गूं, गुर्राहट सिसकारी और सीटी की ध्वनि
जैसी होती है। बिलिंग कबूतर और उनकी प्रणय रीति सामान्य दृश्य है, जिसमें
ये झुककर गुटर गूं करते हैं। नर झुककर सिर आगे पीछे हिलाते हुए और गर्दन व
छाती फुलाकर प्रदर्शन करता है।
निवास का विशेष स्थान
कबूतर वृक्षों या भूमि पर निवास करते है और इनमें से कई कबूतर झुंडों
में रहते हैं। कबूतर एकसहचरी होते हैं। वे छेदों व ऊंची चट्टानों की
गुफ़ाओं में टहनियों और भूसे से कमज़ोर व बेतरतीब घोंसले बनाते हैं। पालतू
कबूतर पक्के कुंओं ख़ाली या आबाद भवनों, पुलों की मेहराबों दीवार के छेदों,
छज्जों, और अन्य सुरक्षित स्थानों पर प्रजनन करते हैं।
महत्त्व
अंत: प्रजनन से विभिन्न रंगों के कबूतर की कई नस्ले पैदा हो गई हैं।
कबूतरों की संख्या विस्फोट और जंगली कबूतर का दु:साध्य जन्म नियंत्रण शहरी
क्षेत्र के उड्डयन सुरक्षा अधिकारियों और प्रशासकों के लिए एक दु:स्वप्न की
तरह है। उनके मल से छ्त उत्पादों और नाज़ुक मशीनों का अपरदन होता है। इसके
बावजूद धार्मिक संस्थानों, समुद्र तटों और नदियों के किनारे बने
कबूतरख़ानों में इन्हें दाना खिलाया जाता है। कबूतरों को शांति का प्रतीक
और सौभाग्य का सूचक माना जाता है इनका आर्थिक महत्त्व भी है, ये खरपतवार के
बीजों का नाश करते हैं। कबूतर का मांस स्वादिष्ट एवं खाद्य पदार्थ है।
इनके बीट का इस्तेमाल सज्जी खार बनाने में होता है। इनके बीट से अच्छा
उर्वरक तैयार होता है। कबूतरों की कई प्रजातियाँ प्रव्रजक और ख़ानाबदोश
होती हैं। कबूतरों के घर वापस लौटने की प्रवृत्ति का उपयोग बेतार, दूरसंचार
यंत्रों के आगमन से पहले संदेशों के आदान-प्रदान हेतु होता था। संदेशवाहक
कबूतर एक दिन में 800 से 1,000 किलोमीटर. की दूरी तय कर सकता है। कबूतरों
को उनके मांस के लिए मारा जाता है। कई सुंदर प्रजातियों को पकड़कर बेचा
जाता है। कई ग़ैर सरकारी संगठन कबूतरों और उनके पर्यावास की रक्षा में
सक्रिय हैं।
कबूतरों की उड़ान प्रतियोगिता
कबूतरों को उड़ाके और प्रतियोगी कबूतर भी कहा जाता हैं। इनकी उड़ान
द्रुत और शक्तिशाली होती है और रॉक कबूतर की गति 185 किलोमीटर तक दर्ज की
गई है। खेल
के रुप में कबूतरों की दौड़ बेल्जियम में शुरू हुई थी, जहाँ 1818 में 160
किलोमीटर से अधिक की लंबी दूरी की प्रतियोगिता हुई थी। 1820 में पेरिस व
लीज़ के बीच उड़ान प्रतियोगिता हुई और 1823 में लंदन से बेल्जियम के बीच
हुई। 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ग्रेट ब्रिटेन, अमेरिका
और फ़्रांस में यह खेल लोकप्रिय हुआ। लेकिन किसी भी स्थान पर यह बेल्जियम
से अधिक लोकप्रिय नहीं हुआ जहाँ लगभग प्रत्येक गांव में कबूतरों को पसंद
करने वालों का एक क्लब था। 1881 में तुलू से ब्रूसेल्स के बीच 750 किलोमीटर
की बेल्जियम कोंकूर नेशनल नामक सालाना प्रतियोगिता की शुरुआत हुई; इसी
वर्ष ग्रेट ब्रिटेन में एक्सेटर प्लीमथ और पेंजांस से लंदन तक की नियमित
प्रतियोगिता शुरू हुई। विश्व में इसकी नियामक संस्था फ़ेडरेशन कोलंबोफ़िल
इंटरनेशनल है, जिसका मुख्यालय ब्रसेल्स में है। प्रतियोगिता वाले कबूतरों
को विभिन्न स्थानों से छोड़कर अपने घर वापस लौटने और अपने दड़बे में घुसने
के नियमित अभ्यास के ज़रिये प्रशिक्षित किया जाता है। प्रतियोगिता की
शुरुआत में प्रतियोगी पक्षियों को छल्ले पहनाए जाते हैं; उसके बाद स्टार्टर
द्वारा उन्हें छोड़ दिया जाता है। ये पक्षी तेज़ी से ऊपर उड़्कर सही दिशा
ग्रहण करके सीधे अपने दड़बों की ओर अग्रसर होते हैं। कबूतर की उड़ान में तय
की गई दूरी को उसके द्वारा लिए गए समय से विभाजित करके उसकी अधिकतम गति की
गणना की जाती है। जब तक पक्षी अपने दड़बे के दरवाज़े से अंदर प्रवेश नहीं
कर जाता, उसे वापस पहुंचा हुआ नहीं माना जाता है। घर लौटने के लिए कबूतर कई
हज़ार किलोमीटर. तक की दूरी तय करने के लिए विख़्यात हैं और प्रतियोगिता
के दौरान कुछ कबूतर 145 किलोमीटर तक की औसत गति हासिल कर लेते हैं।
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